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व्यंग्य

दंत-कथा

शशांक दुबे


एक जमाना था जब दाँतों के बारे में हम हिंदुस्तानियों का जनरल नॉलेज बड़ा सीमित हुआ करता था। तब हम इतना ही जानते थे कि इनसान के बत्तीस दाँत होते हैं और इन्हें साफ-सुथरा रखने के लिए किसी काले, धोले या मुफ्तिया (राख या बबूल के पेड़ की टहनी) मंजन का इस्तेमाल करना चाहिए और यदि कोई तकलीफ हो तो किसी चीनी डॉक्टर से चवन्नी की काड़ी फिरवा लेनी चाहिए। लेकिन भला हो, दिल्ली से निकलने वाली साप्ताहिक पत्रिकाओं और शहर के सिनेमा थियेटरों के मालिकों का, जिनकी प्रेरणा से हमें क्रमशः पत्रिका पढ़ने के बाद और फिल्म देखने से पहले कुछ सीधे-सादे विज्ञापन देखने को मिले, जिनकी बदौलत हमने जाना कि अच्छे बच्चे बड़ों का कहना मानते हैं और रात को ब्रश करके ही सोते हैं या कुदरत द्वारा बख्शी गई नेमतों में से एक को हमें इतना सहेज कर रखना है कि बुढ़ापे में साबूत अखरोट भी तोड़ सकें और किसी को झट लौंग का तेल न मलना पड़े। तभी से हिंदुस्तानी मिडिल क्लास के घरों में टूथपेस्ट सुबह के अखबार और शाम के टीवी की तरह अपरिहार्य है।

दाँतों की रक्षा का यह फलसफा भले ही विदेशी हो, लेकिन इसका कार्यान्वयन निहायत देशी स्टाइल में होता है। हिंदुस्तानी बड़े पराक्रमी और जल्दी हार न मानने वालों में गिने जाते हैं। ऐसा नहीं कि पेस्ट खत्म हुआ, तो दूसरा ले आए। हम उसे अपने पास ज्यादा से ज्यादा समय तक के लिए रखना चाहते हैं। लिहाजा जब तक ट्यूब में से पेस्ट निकलता रहे, तब तक तो ठीक, लेकिन जब निकलना बंद हो जाए, तो हम उसके पैरों में दबाव बनाते हुए धीरे-धीरे मुँह तक आते हैं और इस प्रकार हम पाते हैं दो अतिरिक्त दिन का पेस्ट। फिर तीसरे दिन हम चटनी पीसने का पत्थर उठा लाते हैं, जो अब मिक्सर के कारण यूँ भी किसी काम का नहीं रह गया है। उस पत्थर की मदद से पेस्ट निकाला जाता है। चौथे दिन पत्थर चलाने पर वह म्यूनिसपल्टी की पाइप लाइन की तरह जर्जर होकर बीच के इलाकों से पेस्ट के कतरे सप्लाय करने लगता है। हम बड़े इत्मिनान से वे कतरे उठा-उठा कर ब्रश पर लगाते हैं। भले ही उस कवर के कुछ कोने हमारी अँगुली में खरोच पैदा कर दें। हिम्मते डिसोजा मददे जिसोजा। खरोंच के लिए डेटॉल हाजिर है, जो बाथरूम में इसीलिए ही रखा जाता है। डेटॉल मलो और सेप्टिक की चिंता से मुक्ति पाओ। वैसे यदि डेटॉल में जान होती, तो वह जरूर हँसता, क्योंकि हर दवा की कोई एक्सपायरी डेट होती है और आमतौर पर यह डेटॉल तभी का होता है, जिस दिन हम इस घर में शिफ्ट हुए थे।

अब जब पेस्ट का आलम यह है, तब ब्रश का तो कहना ही क्या? जिस तरह आदमी कर्जों के दम पर चालीस लाख का फ्लैट खरीदने की हिम्मत तो जुटा लेता है, लेकिन किचन में एक्जास्ट फेन लगाने में उसकी नानी मरती है; उधार में कार खुशी-खुशी ले आए, लेकिन सीटों पर कुशन लगाने के लिए वह अगले ऐरियर का इंतजार करता है, उसी प्रकार पेस्ट तो महीने के सामान के साथ ले आता है, लेकिन ब्रश खरीदने की हिम्मत वह इतनी जल्दी नहीं जुटा पाता। यह क्या, पेस्ट अट्ठाइस रुपए का और ब्रश छप्पन रुपए का। सोने से घड़ावन महँगी। वह ब्रशों के झुंड में से आदतन सबसे सस्ता ब्रश खरीदता है, जिसकी यह विशेषता होती है कि वह तीन दिन में ही इतना चपटा हो जाता है कि कमजोर नजर वाले को संपट ही न पड़े कि वह आखिर ब्रश करे तो कहाँ से करे? तब उसे इसका कारण समझ में आ जाता है कि यह तो सॉफ्ट ब्रश था, इसलिए ऐसा हुआ। वह हार्ड ब्रश लेता है, जिसको सात दिन बाद भी उसी रूप में पाकर उसका चेहरा खिल उठता है, टूथपेस्टी मुस्कान से नहीं विजयी मुस्कान से। वह इससे मुहब्बत करने लगता है, इतनी कि बदलने की इच्छा ही नहीं होती। अंत में वह दिन आता है जब घर का कोई सदस्य गलती से उससे ऐड़ियाँ रगड़ लेता है और इसकी घोषणा भी कर देता है। तब जाकर ब्रश बदला जाता है।

अब तो ब्रश के साथ टंग क्लीनर का भी चलन हो गया है। टंग क्लीनर की सबसे बड़ी विशेषता यह होती है कि यह बहुत सस्ता होता है। आपको तय करना है कि तीन रुपए वाला धारदार क्लीनर लीजिएगा कि पाँच रुपए वाला बोठा क्लीनर। धारदारवाला लेंगे तो आह के साथ कराह भी निकल सकती है। इसीलिए कहते हैं कि सस्ता रोए बार-बार महँगा रोए एक बार। वैसे काम तो दोनों एक ही करेंगे। घर भर के लोगों और यदि फ्लैट सिस्टम हुआ तो ऊपर-नीचे की दो-दो मंजिलों के लोगों को "अई-अई या सुकू-सुकू" शैली में यह बताने का काम कि आप उठ चुके हैं और नित्य कर्मों से निवृत होना चाह रहे हैं।

दाँतों की रक्षा नामक इस सीडी का दूसरा पार्ट वॉश बेसिन में नहीं बल्कि राह चलते या बैठे-ठाले बजता है। इसके अंतर्गत भोजन या नाश्ते या पान-गुटखे के बाद दाँतों को कुरेदा जाता है। हालाँकि फैशन वालों ने इसके लिए भी खास मार्क की कुरेदनियाँ बनाई हैं, लेकिन ऐसी लक्जरी हमें रेस्तराओं में ही सुलभ होती हैं, जिन्हें हम हम बिल अदा करते हुए टिप देने या न देने का निर्णय करने से पहले ही झपट्टा मार कर ले आते हैं। लेकिन पुरानी बचत की तरह इनका स्टॉक भी जल्द खत्म हो जाता है और हम मौलिक तरीके ढूँढ़ने लगते हैं। माचिस की तीली का जला हुआ हिस्सा तोड़ कर या अगरबत्ती के ठुड्डे से। ऑफिस में तो आलपिन हैं ही। कुछ भाई लोग तो इतनी इंजीनियरी जानते हैं कि आलपिन खत्म होने पर यू पिन को मोड़ कर उसका आई-पिन बनाते हैं और उसी से काम चलाते हैं। फिर इस दुःसाहस में जब पिन कहीं इधर-उधर घुस जाती है तो डॉक्टर साहब के यहाँ दौड़ लगाते हैं, जो मय अपनी एक्स-रे मशीन के आपका हार्दिक स्वागत करते हैं।


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